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चमन में लाला-ओ-गुल पर निखार भी तो नहीं | शाही शायरी
chaman mein lala-o-gul par nikhaar bhi to nahin

ग़ज़ल

चमन में लाला-ओ-गुल पर निखार भी तो नहीं

सुरूर बाराबंकवी

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चमन में लाला-ओ-गुल पर निखार भी तो नहीं
ख़िज़ाँ अगर ये नहीं है बहार भी तो नहीं

तमाज़त-ए-ग़म-ए-दौराँ से फुंक रही है हयात
कहीं पे साया-ए-गेसू-ए-यार भी तो नहीं

ख़याल-ए-तर्क-ए-मोहब्बत बजा सही लेकिन
अब अपने दिल पे हमें इख़्तियार भी तो नहीं

कभी तो जान-ए-वफ़ा है कभी है दुश्मन-ए-जाँ
तिरी नज़र का कोई ए'तिबार भी तो नहीं

ब-ईं तग़ाफ़ुल-ए-पैहम सितम तो ये है 'सुरूर'
मैं उस की ख़ातिर-ए-नाज़ुक पे बार भी तो नहीं