चमन में लाला-ओ-गुल पर निखार भी तो नहीं
ख़िज़ाँ अगर ये नहीं है बहार भी तो नहीं
तमाज़त-ए-ग़म-ए-दौराँ से फुंक रही है हयात
कहीं पे साया-ए-गेसू-ए-यार भी तो नहीं
ख़याल-ए-तर्क-ए-मोहब्बत बजा सही लेकिन
अब अपने दिल पे हमें इख़्तियार भी तो नहीं
कभी तो जान-ए-वफ़ा है कभी है दुश्मन-ए-जाँ
तिरी नज़र का कोई ए'तिबार भी तो नहीं
ब-ईं तग़ाफ़ुल-ए-पैहम सितम तो ये है 'सुरूर'
मैं उस की ख़ातिर-ए-नाज़ुक पे बार भी तो नहीं
ग़ज़ल
चमन में लाला-ओ-गुल पर निखार भी तो नहीं
सुरूर बाराबंकवी