चमन को ख़ार-ओ-ख़स-ए-आशियाँ से आर न हो
कहीं गुज़िश्ता बहारों की यादगार न हो
चमक रहा है अँधेरे में कारोबार-ए-हयात
नज़र नज़र हो तो जीना भी साज़गार न हो
ये ज़ुल्फ़-ओ-रुख़ ये शब-ओ-रोज़ ये बहार-ओ-ख़िज़ाँ
वो सिलसिला है कि क़त-ए-नज़र भी बार न हो
बहार कुछ जो मिली रंग-ओ-बू से बेगाना
वो आ गए कि अनासिर में इंतिशार न हो
ये तार-ओ-पूद निज़ाम-ए-ख़िरद बिखर के रहे
जुनूँ ब-क़द्र-ए-तजल्ली जो होशियार न हो
ये डर रहा हूँ मैं तकरार-ए-मौसम-ए-गुल से
मिटा हुआ कोई आलम फिर आश्कार न हो
ये आरज़ू है कि ख़ुश-फ़हमी-ए-तलब है 'नुशूर'
उमीद क्या है जो दुनिया उमीद-वार न हो
ग़ज़ल
चमन को ख़ार-ओ-ख़स-ए-आशियाँ से आर न हो
नुशूर वाहिदी