चमन का ज़िक्र क्या अब तो ख़ुदा को याद करते हैं
ख़ुशी सय्याद को होती है जब फ़रियाद करते हैं
न शरमाओ अगर हम शिकवा-ए-बेदाद करते हैं
मोहब्बत है तुम्हारी आदतों को याद करते हैं
हमारी दास्तान-ए-ग़म रुलाती है ज़माने को
वो हम हैं जो ज़बान ग़ैर से फ़रियाद करते हैं
ख़ुदा आबाद रखे हम-सफीरान-ए-गुलिस्ताँ को
जो कोई फूल खुलता है तो हम को याद करते हैं
असीरान-ए-क़फ़स ख़ुद भी बहुत कुछ कह गुज़रते हैं
चमन के तज़्किरे आपस में जब सय्याद करते हैं
नहीं मा'लूम मैं किस हाल में हूँ बाग़-ए-आलम में
क़फ़स वाले भी मुझ को देख कर फ़रियाद करते हैं
ख़ुद उन का हुस्न मेरी दाद-ख़्वाही उन से करता है
वो आईना लिए हैं और मुझ को याद करते हैं
अदू सय्याद गुलचीं क्यूँ हो मेरे नशेमन के
ये तिनके भी हैं इस क़ाबिल जिन्हें बर्बाद करते हैं
लहद पर चलने वाले थम कि हम कुछ कह नहीं सकते
ज़मीं रखती है मुँह पर हाथ जब फ़रियाद करते हैं
वो ख़ूबाँ जहाँ अश्कों से जिन का हुस्न सींचा था
वही बा'द-ए-फ़ना मिट्टी मिरी बर्बाद करते हैं
सर-ए-गोर-ए-ग़रीबाँ कुछ न पूछो हाल-ए-दिल 'साक़िब'
ज़माना जिन को भूला है हम उन को याद करते हैं
ग़ज़ल
चमन का ज़िक्र क्या अब तो ख़ुदा को याद करते हैं
साक़िब लखनवी