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चमन है मक़्तल-ए-नग़्मा अब और क्या कहिए | शाही शायरी
chaman hai maqtal-e-naghma ab aur kya kahiye

ग़ज़ल

चमन है मक़्तल-ए-नग़्मा अब और क्या कहिए

मजरूह सुल्तानपुरी

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चमन है मक़्तल-ए-नग़्मा अब और क्या कहिए
बस इक सुकूत का आलम जिसे नवा कहिए

असीर-ए-बंद-ए-ज़माना हूँ साहबान-ए-चमन
मिरी तरफ़ से गुलों को बहुत दुआ कहिए

यही है जी में कि वो रफ़्ता-ए-तग़ाफुल ओ नाज़
कहीं मिले तो वही क़िस्सा-ए-वफ़ा कहिए

उसे भी क्यूँ न फिर अपने दिल-ए-ज़बूँ की तरह
ख़राब-ए-काकुल ओ आवारा-ए-अदा कहिए

ये कू-ए-यार ये ज़िंदाँ ये फ़र्श-ए-मय-ख़ाना
इन्हें हम अहल-ए-तमन्ना के नक़्श-ए-पा कहिए

वो एक बात है कहिए तुलू-ए-सुब्ह-ए-नशात
कि ताबिश-ए-बदन ओ शोला-ए-हिना कहिए

वो एक हर्फ़ है कहिए उसे हिकायत-ए-ज़ुल्फ़
कि शिकवा-ए-रसन ओ बंदिश-ए-बला कहिए

रहे न आँख तो क्यूँ देखिए सितम की तरफ़
कटे ज़बान तो क्यूँ हर्फ़-ए-ना-रवा कहिए

पुकारिए कफ़-ए-क़ातिल को अब मआलिज-ए-दिल
बढ़े जो नाख़ुन-ए-ख़ंजर गिरह-कुशा कहिए

पड़े जो संग तो कहिए उसे निवाला-ए-ज़र
लगे जो ज़ख़्म बदन पर उसे क़बा कहिए

फ़साना जब्र का यारों की तरह क्यूँ 'मजरूह'
मज़ा तो जब है कि जो कहिए बरमला कहिए