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चमक जुगनू की बर्क़-ए-बे-अमाँ मालूम होती है | शाही शायरी
chamak jugnu ki barq-e-be-aman malum hoti hai

ग़ज़ल

चमक जुगनू की बर्क़-ए-बे-अमाँ मालूम होती है

सीमाब अकबराबादी

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चमक जुगनू की बर्क़-ए-बे-अमाँ मालूम होती है
क़फ़स में रह के क़द्र-ए-आशियाँ मालूम होती है

कहानी मेरी रूदाद-ए-जहाँ मालूम होती है
जो सुनता है उसी की दास्ताँ मालूम होती है

सहर तक सई-ए-नाला राएगाँ मालूम होती है
ये दुनिया तो ब-क़द्र-ए-यक-फ़ुग़ाँ मालूम होती है

किसी के दिल में गुंजाइश नहीं वो बार-ए-हस्ती हों
लहद को भी मिरी मिट्टी गिराँ मालूम होती है

ख़िज़ाँ के वक़्त भी ख़ामोश रहती है फ़ज़ा सारी
चमन की पत्ती पत्ती राज़-दाँ मालूम होती है

हवा-ए-शौक़ की क़ुव्वत वहाँ ले आई है मुझ को
जहाँ मंज़िल भी गर्द-ए-कारवाँ मालूम होती है

तरक़्क़ी पर है रोज़-अफ़्ज़ूँ ख़लिश दर्द-ए-मोहब्बत की
जहाँ महसूस होती थी वहाँ मालूम होती है

क़फ़स की तीलियों में जाने क्या तरकीब रक्खी है
कि हर बिजली क़रीब-ए-आशियाँ मालूम होती है

न क्यूँ 'सीमाब' मुझ को क़द्र हो वीरानी-ए-दिल की
ये बुनियाद-ए-नशात-ए-दो-जहाँ मालूम होती है