चलते चलते रुक जाता है
दीवाना कुछ सोच रहा है
इस जंगल का एक ही रस्ता
जिस पर जादू का पहरा है
दूर घने पेड़ों का मंज़र
मुझ को आवाज़ें देता है
दम लूँ या आगे बढ़ जाऊँ
सर पर बादल का साया है
उस ज़ालिम की आँखें नम हैं
पत्थर से पानी रिसता है
भीगा भीगा सुब्ह का आँचल
रात बहुत पानी बरसा है
ग़ज़ल
चलते चलते रुक जाता है
असग़र गोरखपुरी