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चलो माना कि फुर्तीले नहीं थे | शाही शायरी
chalo mana ki phurtile nahin the

ग़ज़ल

चलो माना कि फुर्तीले नहीं थे

राजेन्द्र कलकल

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चलो माना कि फुर्तीले नहीं थे
मगर इतने भी हम ढीले नहीं थे

ख़यालों में सजा लेते थे उन को
हमारे शौक़ ख़रचीले नहीं थे

मज़ा मंज़िल को पा कर भी न आया
सफ़र में रेत के टीले नहीं थे

हवेली में सभी रहते थे मिल कर
तब इतने रिश्ते ज़हरीले नहीं थे

कभी आते थे ख़त उन के भी 'कलकल'
वो पहले इतने शर्मीले नहीं थे