चले थे यार बड़े ज़ोम में हवा की तरह
पलट के देखा तो बैठे हैं नक़्श-ए-पा की तरह
मुझे वफ़ा की तलब है मगर हर इक से नहीं
कोई मिले मगर उस यार-ए-बेवफ़ा की तरह
मिरे वजूद का सहरा है मुंतज़िर कब से
कभी तो आ जरस-ए-ग़ुंचा की सदा की तरह
वो अजनबी था तो क्यूँ मुझ से फेर कर आँखें
गुज़र गया किसी देरीना आश्ना की तरह
कशाँ कशाँ लिए जाती है जानिब-ए-मंज़िल
नफ़स की डोर भी ज़ंजीर-ए-बे-सदा की तरह
'फ़राज़' किस के सितम का गिला करें किस से
कि बे-नियाज़ हुई ख़ल्क़ भी ख़ुदा की तरह
ग़ज़ल
चले थे यार बड़े ज़ोम में हवा की तरह
अहमद फ़राज़