चले आओ अगर दम भर को तुम तो ये जाता रहे फ़िल-फ़ौर मरज़
कि नहीं है ब-जुज़ बीमारी-ए-ग़म मिरी जान मुझे कोई और मरज़
नहीं कहता मैं तुम से कि चारा करो मगर आ के कभी कभी देख तो लो
कि समझता नहीं है तबीब कोई है तुम्हारे ही क़ाबिल-ए-ग़ौर मरज़
मिरे ईसा-दम मिरे बे-परवा न इलाज से मेरे हाथ उठा
नहीं बचने का ये मरीज़ तिरा कि है बढ़ता चला बे-तौर मरज़
नहीं इस का तअज्जुब यारो अगर मिरे दिल में दर्द हो रह रह कर
करे ग़फ़लत ईसी-ए-दौराँ जब तू न बाँधे क्यूँ-कर दौर मरज़
तुझे 'अंजुम' दर्द-ए-फ़िराक़ भला क्यूँ चैन से उठने बैठने दे
वो मसीह न जब कुछ रहम करे करे क्यूँ न जफ़ा-ओ-जौर मरज़
ग़ज़ल
चले आओ अगर दम भर को तुम तो ये जाता रहे फ़िल-फ़ौर मरज़
मिर्ज़ा आसमान जाह अंजुम