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चल रहा हूँ पेश-ओ-पस-मंज़र से उकताया हुआ | शाही शायरी
chal raha hun pesh-o-pas-manzar se uktaya hua

ग़ज़ल

चल रहा हूँ पेश-ओ-पस-मंज़र से उकताया हुआ

एजाज़ गुल

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चल रहा हूँ पेश-ओ-पस-मंज़र से उकताया हुआ
एक से दिन रात के चक्कर से उकताया हुआ

बे-दिली होश्यार पहुँची मुझ से पहले थी वहाँ
में गया जिस अंजुमन में घर से उकताया हुआ

हो नहीं पाया है समझौता कभी दोनों के बीच
झूट अंदर से है सच बाहर से उकताया हुआ

अब मुज़य्यन है तलफ़्फ़ुज़ से अवामुन्नास के
शेर सर्फ़-ओ-नहव के चक्कर से उकताया हुआ

ख़्वाहिश-ए-ईजाद है अपने मआनी की उसे
लग रहा ये फ़े'अल है मसदर से उकताया हुआ

चुभ रहे हैं आँख में ख़्वाब-ए-परेशाँ रफ़्त के
जिस्म है इस नींद के बिस्तर से उकताया हुआ

उम्र लेकिन राएगाँ की उस के जमा ओ ख़र्च में
था हमेशा ज़ेहन चीज़ज़े-ज़र से उकताया हुआ

आज फिर पढ़ता हूँ मकतब में नए उस्ताद से
कल था जिन अस्बाक़ के अज़बर से उकताया हुआ

ज़ात अपनी इन में रखता हूँ बराबर मुनक़सिम
दिल मिरा है बहस-ए-ख़ैर-ओ-शर से उकताया हुआ