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चक्खी है लम्हे लम्हे की हम ने मिठास भी | शाही शायरी
chakkhi hai lamhe lamhe ki humne miThas bhi

ग़ज़ल

चक्खी है लम्हे लम्हे की हम ने मिठास भी

ख़लील-उर-रहमान आज़मी

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चक्खी है लम्हे लम्हे की हम ने मिठास भी
ये और बात है कि रहे हैं उदास भी

इन अजनबी लबों पे तबस्सुम की इक लकीर
लगता है ऐसी शय थी कभी अपने पास भी

मंसूब होंगी और भी उस से हिकायतें
ये ज़ख़्म-ए-दिल कि आज है जो बे-लिबास भी

फैला हुआ था सदियों तलक उस का सिलसिला
दरिया के साथ साथ बढ़ी अपनी प्यास भी

'नासिर' को रो रहा हूँ कि था मेरा हम-सुख़न
गो उस से हो सका न कभी रू-शनास भी