चक्खी है लम्हे लम्हे की हम ने मिठास भी
ये और बात है कि रहे हैं उदास भी
इन अजनबी लबों पे तबस्सुम की इक लकीर
लगता है ऐसी शय थी कभी अपने पास भी
मंसूब होंगी और भी उस से हिकायतें
ये ज़ख़्म-ए-दिल कि आज है जो बे-लिबास भी
फैला हुआ था सदियों तलक उस का सिलसिला
दरिया के साथ साथ बढ़ी अपनी प्यास भी
'नासिर' को रो रहा हूँ कि था मेरा हम-सुख़न
गो उस से हो सका न कभी रू-शनास भी
ग़ज़ल
चक्खी है लम्हे लम्हे की हम ने मिठास भी
ख़लील-उर-रहमान आज़मी