EN اردو
चढ़ते हुए दरिया की अलामत नज़र आए | शाही शायरी
chaDhte hue dariya ki alamat nazar aae

ग़ज़ल

चढ़ते हुए दरिया की अलामत नज़र आए

रज़ा हमदानी

;

चढ़ते हुए दरिया की अलामत नज़र आए
ग़ुस्से में वो कुछ और क़यामत नज़र आए

गुम अपने ही साए में हैं हट जाएँ तो शायद
खोया हुआ अपना क़द-ओ-क़ामत नज़र आए

क्या क़हर है हर सीने में इक हश्र बपा है
इक-आध गिरेबाँ तो सलामत नज़र आए

कूचे से तिरे निकले तो सब शहर था दुश्मन
हर आँख में कुछ संग मलामत नज़र आए

हम कैसे ये समझें कि पशेमान है क़ातिल
चेहरे पे न जब हर्फ़-ए-नदामत नज़र आए

हम मोरीद-ए-इल्ज़ाम समझते रहे उन को
देखा तो 'रज़ा' हम ही मलामत नज़र आए