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चढ़ता सूरज उड़ता बादल बहता दरिया कुछ भी नहीं | शाही शायरी
chaDhta suraj uDta baadal bahta dariya kuchh bhi nahin

ग़ज़ल

चढ़ता सूरज उड़ता बादल बहता दरिया कुछ भी नहीं

तनवीर गौहर

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चढ़ता सूरज उड़ता बादल बहता दरिया कुछ भी नहीं
सारा तमाशा मेरे लिए है लेकिन मेरा कुछ भी नहीं

उन की नन्ही उँगली तो अब कम्पयूटर से खेले है
आज के बच्चों की नज़रों में चंदा-मामा कुछ भी नहीं

मेरे प्यासे होंटों ही से बस दरिया की क़ीमत है
तिश्ना-लबी का मूल है सारा वर्ना दरिया कुछ भी नहीं

उस ने हम को हल्दी क्या दी हम पंसारी बन बैठे
लेने वाले मालिक ठहरे देने वाला कुछ भी नहीं

तेरा मेरा करते करते उम्र गुज़ारी जाती है
सच तो ये है तेरा मेरा मेरा तेरा कुछ भी नहीं

हम नज़रों नज़रों में अपने दिल का सौदा कर बैठे
सोचा-समझा कुछ भी नहीं और देखा-भाला कुछ भी नहीं

इन रिश्तों की भीड़ में अक्सर मुझ को ऐसा लगता है
सारी दुनिया अपनी सगी है लेकिन अपना कुछ भी नहीं

लाख करें हम सज्दा ज़मीं पर लाख जबीं को घिस डालें
साफ़ न हो गर निय्यत 'गौहर' तो फिर सज्दा कुछ भी नहीं