EN اردو
चढ़ी तेरे बीमार-ए-फ़ुर्क़त को तब है | शाही शायरी
chaDhi tere bimar-e-furqat ko tab hai

ग़ज़ल

चढ़ी तेरे बीमार-ए-फ़ुर्क़त को तब है

रिन्द लखनवी

;

चढ़ी तेरे बीमार-ए-फ़ुर्क़त को तब है
ब-शिद्दत क़लक़ है निहायत त'अब है

मरीज़-ए-मोहब्बत तिरा जाँ-ब-लब है
तजाहुल सितम है तग़ाफ़ुल ग़ज़ब है

वो आफ़त है आफ़त है आफ़त है आफ़त
ग़ज़ब है ग़ज़ब है ग़ज़ब है ग़ज़ब है

गली यार की है क़दम रख्खूँ क्यूँ-कर
चलूँ सर के बल याँ मक़ाम-ए-अदब है

जो अबरू दिखाया तो आरिज़ भी दिखला
वो क़ुरआन है ये हिलाल-ए-रजब है

हुई सुब्ह-ए-पीरी कटी अब जवानी
ये जलना फ़क़त शम्अ-साँ शब की शब है

वो ज़ुल्फ़-ए-सियह है कि मुश्क-ए-ख़ुतन है
नहीं ख़त सवाद-ए-दयार-ए-हलब है

खुला कुछ न मुझ पर न आने का मंशा
जिहत कुछ तो फ़रमाइए क्या सबब है

जो शजरा था मजनूँ का शजरा है मेरा
जो था क़ैस का सिलसिला वो नसब है

ग़नीमत समझ वक़्त-ए-फ़ुर्सत को ग़ाफ़िल
न हाथ आएगा फिर ये मौक़ा जो अब है

ख़ुदा की ख़ुदाई का जल्वा है ओ बुत
ये हुस्न-ए-जवानी नहीं शान-ए-रब है

करूँ क्यूँ न सामान-ए-इशरत मुहय्या
शब-ए-वस्ल-ए-दिलबर उरूसी की शब है

जिसे लोग कहते हैं शाह-ए-ख़ुरासाँ
वो बे-शुबह इबन-ए-अमीर-ए-अरब है

ग़ुलाम उस का हूँ जो है कौसर का साक़ी
जभी 'रिंद' मय-ख़्वार मेरा लक़ब है