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चढ़ा कर तीर नज़रों की कमाँ पर | शाही शायरी
chaDha kar tir nazron ki kaman par

ग़ज़ल

चढ़ा कर तीर नज़रों की कमाँ पर

नवीन सी. चतुर्वेदी

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चढ़ा कर तीर नज़रों की कमाँ पर
हसीनों के क़दम हैं आसमाँ पर

हर इक लम्हा लगे वो आ रहे है
यक़ीं बढ़ता ही जाता है गुमाँ पर

कोई वा'दा वफ़ा हो जाए शायद
भरोसा आज भी है जान-ए-जाँ पर

उतरती ही नहीं बोसों की लज़्ज़त
अभी तक स्वाद रक्खा है ज़बाँ पर

किसी की रूह प्यासी रह न जाए
लिहाज़ा ग़म बरसते है जहाँ पर

अगर भटका तो उस को छोड़ देंगे
नज़र रक्खे हुए हैं कारवाँ पर

अमाँ हम भी किराए-दार ही हैं
भले ही नाम लिक्खा है मकाँ पर