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चारासाज़-ए-ज़ख़्म-ए-दिल वक़्त-ए-रफ़ू रोने लगा | शाही शायरी
chaarasaz-e-zaKHm-e-dil waqt-e-rafu rone laga

ग़ज़ल

चारासाज़-ए-ज़ख़्म-ए-दिल वक़्त-ए-रफ़ू रोने लगा

अमीरुल्लाह तस्लीम

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चारासाज़-ए-ज़ख़्म-ए-दिल वक़्त-ए-रफ़ू रोने लगा
जी भर आया दीदा-ए-सोज़न लहू रोने लगा

बस कि थी रोने की आदत वस्ल में भी यार से
कह के अपना आप हाल-ए-आरज़ू रोने लगा

ख़ंदा-ए-ज़ख़्म-ए-जिगर ने दिल दुखाया और भी
जिस घड़ी टूटा कोई तार-ए-रफ़ू रोने लगा

सदमा-ए-बे-रहमी-ए-साक़ी न उट्ठा बज़्म में
जी भर आया देख कर ख़ाली सुबू रोने लगा

था अदम में खींच लाया आब-ओ-दाना जब यहाँ
देख कर बेचारगी से चार सू रोने लगा

आ गया काबे में जब मेहराब-ए-अबरू का ख़याल
बैठ कर 'तस्लीम'-ए-ख़स्ता क़िबला-रू रोने लगा