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चारा-फ़रमाई-ए-दिल रस्म-ए-बुताँ है तो सही | शाही शायरी
chaara-farmai-e-dil rasm-e-butan hai to sahi

ग़ज़ल

चारा-फ़रमाई-ए-दिल रस्म-ए-बुताँ है तो सही

निहाल सेवहारवी

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चारा-फ़रमाई-ए-दिल रस्म-ए-बुताँ है तो सही
अभी कुछ मेहर-ओ-मोहब्बत का निशाँ है तो सही

नक़्श-ए-पा तेरा है गर तू नहीं ऐ हश्र-ख़िराम
इक न इक बाइस-ए-आशोब-ए-जहाँ है तो सही

आप से आप तो पैदा नहीं ये लाला-ओ-गुल
कोई आख़िर चमन-आरा-ए-जहाँ है तो सही

ये भी कहते हैं कि है अर्ज़-ए-तमन्ना बे-सूद
ये भी कहते हैं तिरे मुँह में ज़बाँ है तो सही

जल्वा-ए-दोस्त को समझा नहीं ये बात है और
जल्वा-ए-दोस्त मुहीत-ए-दिल-ओ-जाँ है तो सही

चाहिए और तुझे क्या पए-हंगामा-ए-हुस्न
तेरे क़ुर्बान ये सब कौन-ओ-मकाँ है तो सही

हम ने माना कि नहीं 'हाली' ओ 'मजरूह' 'निहाल'
'मीर' ओ 'ग़ालिब' का ये एजाज़-ए-बयाँ है तो सही