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चार-सू आलम-ए-इम्काँ में अँधेरा देखा | शाही शायरी
chaar-su aalam-e-imkan mein andhera dekha

ग़ज़ल

चार-सू आलम-ए-इम्काँ में अँधेरा देखा

औज लखनवी

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चार-सू आलम-ए-इम्काँ में अँधेरा देखा
तू जिधर है उसी जानिब को उजाला देखा

उस पे क़ुर्बान कि जिस ने तिरी आवाज़ सुनी
सदक़े उस आँख के जिस ने तिरा जल्वा देखा

ख़लवत-ए-क़ुद्स की बे-पर्दा तजल्ली को न पूछ
शौक़-ए-नज़्ज़ारा में सिर्फ़ आँख का पर्दा देखा

आँख जब बंद हुई खुल गया राज़-ए-क़ुदरत
शान-ए-मा'बूद अँधेरे में उजाला देखा

पर्दा उठ जाएगा जब रू-ए-तजल्ली से कलीम
आप ख़ुद मुँह से कहेंगे कि अभी क्या देखा

रू-ए-गुल रंग-ए-ख़िज़ाँ जोश-ए-जुनूँ फ़स्ल-ए-बहार
चार दिन के लिए इस बाग़ में क्या क्या देखा

'औज' कज-बख़्ती-ए-अर्बाब-ए-सुख़न से क्या बहस
दामन-ए-गुल कभी काँटों में न उलझा देखा