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चार जानिब से सदा आई मिरी | शाही शायरी
chaar jaanib se sada aai meri

ग़ज़ल

चार जानिब से सदा आई मिरी

मोहसिन एहसान

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चार जानिब से सदा आई मिरी
शो'बदा बन गई तन्हाई मिरी

मौत को जब से मुक़ाबिल देखा
ज़िंदगी हो गई शैदाई मिरी

अब भी यारान-ए-गिरफ़्ता-दिल को
याद है अंजुमन-आराई मिरी

लब-कुशाई से मिली रिफ़अत-ए-दार
किस बुलंदी पे है गोयाई मिरी

रात फैली तो सर-ए-ख़ल्वत-ए-ग़म
बे-कराँ बन गई तन्हाई मिरी

सुब्ह चमकी तो ग़ुबार-ए-शब से
बे-मुहाबाना सदा आई मिरी

उम्र भर मेरा मुख़ातिब वो था
बात जिस को न समझ आई मिरी

दिल-ए-नादाँ ने डुबोया 'मोहसिन'
काम कुछ आई न दानाई मिरी