चाँदनी था कि ग़ज़ल था कि सबा था क्या था
मैं ने इक बार तिरा नाम सुना था क्या था
अब के बिछड़े हैं तो लगता है कि कुछ टूट गया
मेरा दिल था कि तिरा अहद-ए-वफ़ा था क्या था
ख़ुद-कुशी कर के भी बिस्तर से उठा हूँ ज़िंदा
मैं ने कल रात को जो ज़हर पिया था क्या था
तुम तो कहते थे ख़ुदा तुम से ख़फ़ा है 'क़ैसर'
डूबते वक़्त वो जो इक हाथ बढ़ा था क्या था
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ग़ज़ल
चाँदनी था कि ग़ज़ल था कि सबा था क्या था
क़ैसर-उल जाफ़री