चाँदी का बदन सोने का मन ढूँड रहा है
औरों मैं ही अच्छाई का धन ढूँढ रहा है
कुछ पेड़ हैं नफ़रत की हवा जिन से बढ़ी है
ये बाग़ मगर अब भी अमन ढूँड रहा है
संगम के इलाक़े से है पहचान हमारी
ये दिल तो वही गंग-ओ-जमन ढूँड रहा है
अंजान से इक ख़ौफ़ को ढोता हुआ इंसान
अपने को बचाने का जतन ढूँड रहा है
गाँव के हर इक ख़्वाब में शहरों की कहानी
शहरों में जिसे देखो वतन ढूँड रहा है
लोगों ने यहाँ राम से सीखा तो यही बस
हर शख़्स ही सोने का हिरन ढूँड रहा है

ग़ज़ल
चाँदी का बदन सोने का मन ढूँड रहा है
प्रताप सोमवंशी