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चाँद-तारों का तिरे रू-ब-रू सज्दा करना | शाही शायरी
chand-taron ka tere ru-ba-ru sajda karna

ग़ज़ल

चाँद-तारों का तिरे रू-ब-रू सज्दा करना

उरूज ज़ैदी बदायूनी

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चाँद-तारों का तिरे रू-ब-रू सज्दा करना
ख़्वाब देखा है तो क्या ख़्वाब का चर्चा करना

हुस्न-ए-बरहम से मिरा अर्ज़-ए-तमन्ना करना
जैसे तूफ़ान में साहिल से किनारा करना

रास आएगा न ये कोशिश-ए-बेजा करना
बद-गुमानी को बढ़ा कर मुझे तन्हा करना

मेरी जानिब से है ख़ामोश दरीचे का सवाल
कब से सीखा तिरी आवाज़ ने पर्वा करना

हर-क़दम पर मिरी काँटों ने पज़ीराई की
जुर्म पूछो तो बहारों की तमन्ना करना

दावत-ए-शोख़ी-ए-तक़दीर उसे कहते हैं
कार-ए-इम्रोज़ न करना ग़म-ए-फ़र्दा करना

उन की मोहतात-निगाही ने भरम खोल दिया
जिन को मंज़ूर न था राज़ का इफ़्शा करना

वक़्त के हाथों में तिरयाक भी है ज़हर भी है
उस को यक-रंग समझ कर न भरोसा करना

तर्जुमान-ए-ग़म-ए-दिल उन की नज़र होती है
जिन को आता नहीं इज़्हार-ए-तमन्ना करना

ख़ुद-नुमाई नहीं इंसान की ख़ुद्दारी है
परचम-ए-अज़्मत-ए-किरदार को ऊँचा करना

ज़ुल्मत-ए-जुम्बिश-ए-लब की नहीं उम्मीद मगर
निगह-ए-नाज़ न भूलेगी इशारा करना

गो मैं यूसुफ़ नहीं दामन तो मिरे पास भी है
तुम ज़रा पैरवी-ए-दस्त-ए-ज़ुलेख़ा करना

ऐ कि तू नाज़िश-ए-सन्नाई-ए-दस्त-ए-फ़ितरत
काश आता न तुझे ख़ून-ए-तमन्ना करना

जादा-ए-इश्क़ में इक ऐसा मक़ाम आता है
शर्त-ए-अव्वल है जहाँ तर्क-ए-तमन्ना करना

आप के अहद-ए-वफ़ा पर मिरा ईमाँ जैसे
किसी गिरती हुई दीवार पे तकिया करना

कोशिश-ए-ज़ब्त में हर साँस क़यामत है 'उरूज'
खेल समझे हो ग़म-ए-दिल को गवारा करना