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चाँद-सूरज न सही एक दिया हूँ मैं भी | शाही शायरी
chand-suraj na sahi ek diya hun main bhi

ग़ज़ल

चाँद-सूरज न सही एक दिया हूँ मैं भी

शाइक़ मुज़फ़्फ़रपुरी

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चाँद-सूरज न सही एक दिया हूँ मैं भी
अपने तारीक मकानों में जला हूँ मैं भी

अपने अस्लाफ़ की अज़्मत से जुड़ा हूँ मैं भी
अपनी तहज़ीब की मुट्ठी में दबा हूँ मैं भी

तुम भी गिरती हुई दीवार को कांधा दे दो
अपने पैरों पे इसी तरह खड़ा हूँ मैं भी

मेरी ख़ामोशी-ए-लब का है सदा से रिश्ता
ये न समझे कोई बे-सौत-ओ-सदा हूँ मैं भी

कोई ढूँडे मिरे चेहरे पे थकन के आसार
वक़्त के साथ तो इक उम्र चला हूँ मैं भी

जाने कब किस के सँवरने का इरादा जागे
इस लिए सूरत-ए-आईना रहा हूँ मैं भी

झुक के मिलने की अज़ल ही से है फ़ितरत 'शाइक़'
गरचे सर-बस्ता-ए-दस्तार-ए-अना हूँ मैं भी