चाँद फिर तारों की उजली रेज़गारी दे गया
रात को ये भीक कैसी ख़ुद भिकारी दे गया
टाँकती फिरती हैं किरनें बादलों की शाल पर
वो हवा के हाथ में गोटा कनारी दे गया
कर गया है दिल को हर इक वाहिमे से बे-नियाज़
रूह को लेकिन अजब सी बे-क़रारी दे गया
शोर करते हैं परिंदे पेड़ कटता देख कर
शहर के दस्त-ए-हवस को कौन आरी दे गया
उस ने घायल भी किया तो कैसे पत्थर से 'नसीम'
फूल का तोहफ़ा मुझे मेरा शिकारी दे गया
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ग़ज़ल
चाँद फिर तारों की उजली रेज़गारी दे गया
इफ़्तिख़ार नसीम