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चाँद ने अपना दीप जलाया शाम बुझी वीराने में | शाही शायरी
chand ne apna dip jalaya sham bujhi virane mein

ग़ज़ल

चाँद ने अपना दीप जलाया शाम बुझी वीराने में

मुसहफ़ इक़बाल तौसिफ़ी

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चाँद ने अपना दीप जलाया शाम बुझी वीराने में
उस की बस्ती दूर है शायद देर है उस के आने में

क्या पत्थर की भारी सिल है एक इक लम्हा माज़ी का
देखो दब कर रह जाओगे इतना बोझ उठाने में

उस को नहीं देखा है जिस ने मुझ को भला क्या समझेगा
इन आँखों से गुज़रना होगा मेरे दिल तक आने में

अपनी ज़ात से कुछ निस्बत थी वो भी इस की ख़ातिर से
मेरा ज़िक्र नहीं मिलता है अब मेरे अफ़्साने में

एक ही दुख था मेरा अपना वो भी इस को सौंप दिया
आख़िर दिल की बात ज़बाँ तक आ ही गई अनजाने में

अब तो तुम भी जान गई हो तुम को क्या सुख मिलता था
मेरे घर के काम में मेरी माँ का हाथ बटाने में

मेरी रातों में महके हैं जो सपनों की डाली से
रंग है इन फूलों का शामिल आज तिरे शरमाने में

जिस से बात भी करनी मुश्किल वो भी इस महफ़िल में है
'मुसहफ़' कैसा लुत्फ़ रहेगा उस को शेर सुनाने में