EN اردو
चाँद को तालाब मुझ को ख़्वाब वापस कर दिया | शाही शायरी
chand ko talab mujhko KHwab wapas kar diya

ग़ज़ल

चाँद को तालाब मुझ को ख़्वाब वापस कर दिया

अब्बास ताबिश

;

चाँद को तालाब मुझ को ख़्वाब वापस कर दिया
दिन-ढले सूरज ने सब अस्बाब वापस कर दिया

इस तरह बिछड़ा कि अगली रौनक़ें फिर आ गईं
उस ने मेरा हल्क़ा-ए-अहबाब वापस कर दिया

फिर भटकता फिर रहा है कोई बुर्ज-ए-दिल के पास
किस को ऐ चश्म-ए-सितारा-याब वापस कर दिया

मैं ने आँखों के किनारे भी न तर होने दिए
जिस तरफ़ से आया था सैलाब वापस कर दिया

जाने किस दीवार से टकरा के लौट आई है गेंद
जाने किस दीवार ने महताब वापस कर दिया

फिर तो उस की याद भी रक्खी न मैं ने अपने पास
जब किया वापस तो कुल अस्बाब वापस कर दिया

इल्तिजाएँ कर के माँगी थी मोहब्बत की कसक
बे-दिली ने यूँ ग़म-ए-नायाब वापस कर दिया