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चाँद की रानाइयों में राज़ ये मस्तूर है | शाही शायरी
chand ki ranaiyon mein raaz ye mastur hai

ग़ज़ल

चाँद की रानाइयों में राज़ ये मस्तूर है

मुनव्वर हाशमी

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चाँद की रानाइयों में राज़ ये मस्तूर है
ख़ूबसूरत है वही जो दस्तरस से दूर है

अपनी सोचों के मुताबिक़ कुछ भी कर सकता नहीं
आदमी हालात के हाथों बहुत मजबूर है

ख़ाना-ए-दिल में तुम अपने झाँक कर देखो ज़रा
मेरे इख़्लास-ओ-मोहब्बत का वहाँ भी नूर है

हुस्न की तख़्लीक़ में मसरूफ़ है रब्ब-ए-जहाँ
और शाइ'र हुस्न की तारीफ़ पर मामूर है

ये हमारे हक़ में अच्छा हो बुरा हो कुछ भी हो
हम ने करना है वही जो आप को मंज़ूर है

वो सरापा हुस्न है और मैं सरापा इश्क़ हूँ
साज़ से दिल उस का मेरा सोज़ से मा'मूर है

मुझ को है मंज़ूर जब्र-ए-हिज्र भी उस के लिए
मुझ से रह कर दूर भी कोई अगर मसरूर है

आदमी कम-गो है और घर से निकलता भी नहीं
शहर में फिर भी 'मुनव्वर' किस क़दर मशहूर है