EN اردو
चाकरी में रह के इस दुनिया की मोहमल हो गए थे | शाही शायरी
chaakari mein rah ke is duniya ki mohmal ho gae the

ग़ज़ल

चाकरी में रह के इस दुनिया की मोहमल हो गए थे

फ़रहत एहसास

;

चाकरी में रह के इस दुनिया की मोहमल हो गए थे
हम तभी तो देखते ही उस को पागल हो गए थे

जिस्म से बाहर निकल आए थे हम उस की सदा पर
एक लम्हे को तो सारे मसअले हल हो गए थे

इश्क़ मक़नातीस पर सब जमा थे ज़र्रे हमारे
मुंतशिर मिट्टी के मंसूबे मुकम्मल हो गए थे

मेरे हर मिस्रे पे उस ने वस्ल का मिस्रा लगाया
सब अधूरे शेर शब भर में मुकम्मल हो गए थे

दर-ब-दर नाकाम फिरती थी सियह-बख़्ती हमारी
और हम घबरा के उन आँखों में काजल हो गए थे

मैं मकान-ए-वस्ल में पहुँचा तो वो ख़ाली पड़ा था
और दरवाज़े भी बाहर से मुक़फ़्फ़ल हो गए थे

गर्द उड़ाती जा रही थी तेज़-रफ़्तारी हमारी
हम-सफ़र सब दूर तक आँखों से ओझल हो गए थे

'फ़रहत-एहसास' एक दम आशिक़ हुए थे जाने किस के
देखते ही देखते आँखों से ओझल हो गए थे