EN اردو
चाहती है आख़िर क्या आगही ख़ुदा-मालूम | शाही शायरी
chahti hai aaKHir kya aagahi KHuda-malum

ग़ज़ल

चाहती है आख़िर क्या आगही ख़ुदा-मालूम

याक़ूब उस्मानी

;

चाहती है आख़िर क्या आगही ख़ुदा-मालूम
कितने रंग बदलेगी ज़िंदगी ख़ुदा-मालूम

कल तो ख़ैर ऐ रहबर तेरे साथ रहरव थे
आज किस पे हँसती है गुमरही ख़ुदा-मालूम

अब भी सुब्ह होती है अब भी दिन निकलता है
जा छिपी कहाँ लेकिन रौशनी ख़ुदा-मालूम

रास्ती गुरेज़ाँ है आश्ती हिरासाँ है
किस से किस से उलझेगा आदमी ख़ुदा-मालूम

अब तो वक़्त आया है डूब कर उभरने का
कितनी कश्तियाँ डूबीं और अभी ख़ुदा-मालूम

ज़ौक़-ए-नग़्मा-ए-पैराई तू ही बढ़ के दे आवाज़
कब से ग़र्क़-ए-हैरत है ख़ामुशी ख़ुदा-मालूम

सिर्फ़ भीक माँगी थी हम ने आदमियत की
क्यूँ बिफर गए 'याक़ूब' मुद्दई' ख़ुदा-मालूम