चाहो तो मिरा दुख मिरा आज़ार न समझो
लेकिन मिरे ख़्वाबों को गुनहगार न समझो
आसाँ नहीं इंसाफ़ की ज़ंजीर हिलाना
दुनिया को जहाँगीर का दरबार न समझो
आँगन के सुकूँ की कोई क़ीमत नहीं होती
कहते हो जिसे घर उसे बाज़ार न समझो
उजड़े हुए ताक़ों पे जमी गर्द की तह में
रू-पोश हैं किस क़िस्म के असरार न समझो
एहसास के सौ ज़ख़्म बचा सकते हो 'अख़्तर'
इज़हार-ए-मुरव्वत को अगर प्यार न समझो
ग़ज़ल
चाहो तो मिरा दुख मिरा आज़ार न समझो
अख़तर बस्तवी