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चाहो तो मिरा दुख मिरा आज़ार न समझो | शाही शायरी
chaho to mera dukh mera aazar na samjho

ग़ज़ल

चाहो तो मिरा दुख मिरा आज़ार न समझो

अख़तर बस्तवी

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चाहो तो मिरा दुख मिरा आज़ार न समझो
लेकिन मिरे ख़्वाबों को गुनहगार न समझो

आसाँ नहीं इंसाफ़ की ज़ंजीर हिलाना
दुनिया को जहाँगीर का दरबार न समझो

आँगन के सुकूँ की कोई क़ीमत नहीं होती
कहते हो जिसे घर उसे बाज़ार न समझो

उजड़े हुए ताक़ों पे जमी गर्द की तह में
रू-पोश हैं किस क़िस्म के असरार न समझो

एहसास के सौ ज़ख़्म बचा सकते हो 'अख़्तर'
इज़हार-ए-मुरव्वत को अगर प्यार न समझो