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चाहे कुछ हो ज़ेर-ए-एहसाँ अपनी नादारी न रख | शाही शायरी
chahe kuchh ho zer-e-ehsan apni nadari na rakh

ग़ज़ल

चाहे कुछ हो ज़ेर-ए-एहसाँ अपनी नादारी न रख

हामिद मुख़्तार हामिद

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चाहे कुछ हो ज़ेर-ए-एहसाँ अपनी नादारी न रख
पत्थरों से भर के ये शीशे की अलमारी न रख

जंग तू जीते कि हारे ये अलग इक बात है
ज़ेहन-ओ-दिल पर ख़ौफ़ दुश्मन का मगर तारी न रख

आड़ी तिरछी कुछ लकीरें ही मिलेंगी शाम तक
शहर के चौराहे पर तू अपनी फ़नकारी न रख

ये बुज़ुर्गों की रवा-दारी के पज़-मुर्दा गुलाब
आबियारी चाहते हैं इन में चिंगारी न रख

है तिरे इंसाफ़ का तेरी तराज़ू से वक़ार
बाट हल्के हों तो आगे चीज़ भी भारी न रख

ज़िंदगी के आईने की आब है 'हामिद' ख़ुदी
अपनी साँसों से जुदा एहसास-ए-ख़ुद-दारी न रख