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चाहत में क्या दुनिया-दारी इश्क़ में कैसी मजबूरी | शाही शायरी
chahat mein kya duniya-dari ishq mein kaisi majburi

ग़ज़ल

चाहत में क्या दुनिया-दारी इश्क़ में कैसी मजबूरी

मोहसिन भोपाली

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चाहत में क्या दुनिया-दारी इश्क़ में कैसी मजबूरी
लोगों का क्या समझाने दो उन की अपनी मजबूरी

मैं ने दिल की बात रखी और तू ने दुनिया वालों की
मेरी अर्ज़ भी मजबूरी थी उन का हुक्म भी मजबूरी

रोक सको तो पहली बारिश की बूंदों को तुम रोको
कच्ची मिट्टी तो महकेगी है मिट्टी की मजबूरी

ज़ात-कदे में पहरों बातें और मिलीं तो मोहर ब-लब
जब्र-ए-वक़्त ने बख़्शी हम को अब के कैसी मजबूरी

जब तक हँसता गाता मौसम अपना है सब अपने हैं
वक़्त पड़े तो याद आ जाती है मसनूई मजबूरी

इक आवारा बादल से क्यूँ मैं ने साया माँगा था
मेरी भी ये नादानी थी उस की भी थी मजबूरी

मुद्दत गुज़री इक वा'दे पर आज भी क़ाएम हैं 'मोहसिन'
हम ने सारी उम्र निबाही अपनी पहली मजबूरी