चाहत जी का रोग है प्यारे जी को रोक लगाओ क्यूँ 
जैसी करनी वैसी भरनी अब इस पर पछताओ क्यूँ 
सुर्ख़ हैं आँखें ज़र्द है चेहरा रंगों की तरतीब अजीब 
इस बे-रंग ज़माने को तुम ऐसे रंग दिखाओ क्यूँ 
दिल का दर कब बंद हुआ है कोई आए कोई जाए 
जो आए और कभी न जाए वो मेहमान बुलाओ क्यूँ 
सुब्ह का भूला शाम को वापस घर आए तो ग़नीमत है 
जिन गलियों में जा के न लौटो उन गलियों में जाओ क्यूँ 
आस की डोर बहुत नाज़ुक थी बोझ पड़ा तो टूट गई 
तेज़ हवाएँ जब चलती हों ऊँची पेच लड़ाओ क्यूँ 
सारी रुतें आनी-जानी हैं हर रब का है अपना रंग 
रंग का धोका खाने वालो अपना रंग उड़ाओ क्यूँ 
आस का दामन छूट गया तो हाथों को आज़ाद न दो 
अपनी चादर छोटी हो तो पाँव बहुत फैलाव क्यूँ 
प्यार की शिद्दत दिल की हिद्दत 'बाक़र' उस को रास नहीं 
गर्म हवा के झोंकों से उस फूल को तुम कुम्हलाओ क्यूँ
        ग़ज़ल
चाहत जी का रोग है प्यारे जी को रोक लगाओ क्यूँ
सज्जाद बाक़र रिज़वी

