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बूँद पानी को मिरा शहर तरस जाता है | शाही शायरी
bund pani ko mera shahr taras jata hai

ग़ज़ल

बूँद पानी को मिरा शहर तरस जाता है

नसीम सहर

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बूँद पानी को मिरा शहर तरस जाता है
और बादल है कि दरिया पे बरस जाता है

आतिशीं धूप से मिलती है कभी जिस को नुमू
वही पौदा कभी बारिश से झुलस जाता है

राह तश्कील वो अरबाब-ए-वफ़ा ने की थी
अब जहाँ क़ाफ़िला-ए-अहल-ए-हवस जाता है

हो चुकी बू-ए-वफ़ा शहर से रुख़्सत कब की
कोई दिन है कि फलों में से भी रस जाता है

आदमी पर वो कड़ा वक़्त भी आता है कि जब
साँस लेने पस-ए-दीवार-ए-क़फ़स जाता है

तुम भरे शहर में किस ढंग से रहते हो 'नसीम'
गोया वीराने में जा कर कोई बस जाता है