बूँद पानी की हूँ थोड़ी सी हवा है मुझ में
इस बिज़ाअ'त पे भी क्या तुर्फ़ा अना है मुझ में
ये जो इक हश्र शब-ओ-रोज़ बपा है मुझ में
हो न हो और भी कुछ मेरे सिवा है मुझ में
सफ़्हा-ए-दहर पे इक राज़ की तहरीर हूँ मैं
हर कोई पढ़ नहीं सकता जो लिखा है मुझ में
कभी शबनम की लताफ़त कभी शो'ले की लपक
लम्हा लम्हा ये बदलता हुआ क्या है मुझ में
शहर का शहर हो जब अरसा-ए-महशर की तरह
कौन सुनता है जो कोहराम मचा है मुझ में
तोड़ कर साज़ को शर्मिंदा-ए-मिज़्राब न कर
अब न झंकार है कोई न सदा है मुझ में
वक़्त ने कर दिया 'साबिर' मुझे सहरा-ब-कनार
इक ज़माने में समुंदर भी बहा है मुझ में
ग़ज़ल
बूँद पानी की हूँ थोड़ी सी हवा है मुझ में
नो बहार साबिर