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बूँद अश्कों से अगर लुत्फ़-ए-रवानी माँगे | शाही शायरी
bund ashkon se agar lutf-e-rawani mange

ग़ज़ल

बूँद अश्कों से अगर लुत्फ़-ए-रवानी माँगे

सययद मोहम्म्द अब्दुल ग़फ़ूर शहबाज़

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बूँद अश्कों से अगर लुत्फ़-ए-रवानी माँगे
बुलबुला आँखों से ख़ूँनाबा-फ़िशानी माँगे

बहर-ए-उल्फ़त में चला है तो पहले मस्तूल
तीर से आह के कश्ती-ए-दुख़ानी माँगे

नुक्ता-ए-वस्ल दम-ए-अर्ज़ क़लम पर रक्खे
बोसा चाहे तो लब-ए-शौक़ ज़बानी माँगे

ता-क़यामत दिल-ए-बेदार सुनाए हर रोज़
ख़्वाब-ए-राहत तिरा गर रोज़ कहानी माँगे

दिल तो दिल अफ़ई-ए-गेसू वो बला है काफ़िर
इस का काटा कोई अफ़ई भी न पानी माँगे

तिरे क़दमों की बदौलत है निशाँ तुर्बत पर
इस से बढ़ कर कोई क्या मर के निशानी माँगे

उस जवाँ के ग़म-ए-हिज्राँ ने किया है बूढ़ा
ख़िज़्र भी देख के जिस बुत को जवानी माँगे

चाह में उस मह-ए-नख़शब के शब-ओ-रोज़ हैं ग़र्क़
क़ाज़ जिस का मह-ए-कनआँ से शबानी माँगे

ख़ारिज इम्काँ से है 'शहबाज़' शहीदों का शुमार
कोई किस किस के लिए मर्सिया-ख़्वानी माँगे