बू-ए-मय पा के मैं चलता हुआ मय-ख़ाने को
इक परी थी कि लगा ले गई दीवाने को
मेरे साक़ी सा कहाँ कोई पिलाने वाला
आँखें कहती हैं लुटा दीजिए मय-ख़ाने को
सख़्ती-ए-इश्क़ उठाने का ज़माना न रहा
अब तो है फूल भी पथर तिरे दीवाने को
हाथ में आते ही क्या पाँव निकाले साक़ी
आफ़रीं है तिरे चलते हुए पैमाने को
इस में ऐ अहल-ए-वतन राय तुम्हारी क्या है
कहती है वहशत-ए-दिल घर से निकल जाने को
चल गया काम यहाँ जाम चले या न चले
बादा-कश लौट गए देख कै मय-ख़ाने को
दिल सुलगते रहें पर्वा नहीं होती कुछ उन्हें
शम्अ अच्छी कि जला देती है परवाने को
शामिल-ए-दौर हों अग़्यार सितम है साक़ी
अपने पैमाने से बढ़ने दे न पैमाने को
हुस्न-ए-ख़िदमत का सिला देखिए यूँ पाते हैं
रुख़ मिला आइने को ज़ुल्फ़ मिली शाने को
चाल है मस्त नज़र मस्त अदा में मस्ती
जैसे आते हैं वो टूटे होए मय-ख़ाने को
अब्र में बर्क़ का रह रह के चमकना कैसा
ये भी इक उस की है शोख़ी मिरे तड़पाने को
इस में ऐ पर्दा-नशीं पर्दा-दरी किस की है
देखने आती है ख़िल्क़त तिरे दीवाने को
ख़ूब इंसाफ़ है ऐ बादा-कशो क्या कहना
तुम को तस्कीन हो गर्दिश हो जो पैमाने को
है बड़ी चीज़ लगी दिल की ख़ुदा जस को दे
आग में कूद पड़ा देखिए परवाने को
हो के पाबंद-ए-जुनूँ सब से रिहाई पाई
बेड़ियाँ लिपटी थीं लाखों तिरे दीवाने को
खिंच चुकी तेग़ तो अब है ये रुकावट कैसी
आप तड़पाने को आए हैं कि तरसाने को
कोई ऐसी भी है सूरत तिरे सदक़े साक़ी
रख लूँ मैं दिल में उठा कर तिरे मय-ख़ाने को
बुत-ए-पिंदार को तोड़ो तो हो दिल पाक 'जलील'
तुम ख़ुदा-ख़ाना बनाओ इसी बुत-ख़ाने को
ग़ज़ल
बू-ए-मय पा के मैं चलता हुआ मय-ख़ाने को
जलील मानिकपूरी