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बू-ए-गुल सूँघ कर बिगड़ते हैं | शाही शायरी
bu-e-gul sungh kar bigaDte hain

ग़ज़ल

बू-ए-गुल सूँघ कर बिगड़ते हैं

लाला माधव राम जौहर

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बू-ए-गुल सूँघ कर बिगड़ते हैं
ये परी-रू हवा से लड़ते हैं

क्यूँ जवानी के पीछे पड़ते हैं
भागते को नहीं पकड़ते हैं

एक दिन वो ज़मीन देखेंगे
ऐ फ़लक आज को अकड़ते हैं

मल रहे हैं वो अपने घर मेहंदी
हम यहाँ एड़ियाँ रगड़ते हैं

नामा-बर ना-उमीद आता है
हाए क्या सुस्त पाँव पड़ते हैं

जिस के हैं उस के हैं हम ऐ जौहर
यार बन कर कहीं बिगड़ते हैं