बू-ए-गुल सूँघ कर बिगड़ते हैं
ये परी-रू हवा से लड़ते हैं
क्यूँ जवानी के पीछे पड़ते हैं
भागते को नहीं पकड़ते हैं
एक दिन वो ज़मीन देखेंगे
ऐ फ़लक आज को अकड़ते हैं
मल रहे हैं वो अपने घर मेहंदी
हम यहाँ एड़ियाँ रगड़ते हैं
नामा-बर ना-उमीद आता है
हाए क्या सुस्त पाँव पड़ते हैं
जिस के हैं उस के हैं हम ऐ जौहर
यार बन कर कहीं बिगड़ते हैं
ग़ज़ल
बू-ए-गुल सूँघ कर बिगड़ते हैं
लाला माधव राम जौहर