बुतों की मज्लिस में शब को मह-रू जो और टुक भी क़याम करता
कुनिश्त वीराँ सनम को बंदा ब्रह्मणों को ग़ुलाम करता
ख़राब ख़स्ता समझ के तू ने पियारे मुझ को अबस निकाला
जो रहने देता तू गुल-रुख़ों में क़सम है मेरी मैं नाम करता
करोड़ों दिल जो मुए पड़े हैं निकलते ख़ूनीं कफ़न से नालाँ
क़यामत आ जाती जो वो क़ामत गली में अपनी ख़िराम करता
न इतने क़िस्से न जंग होती पियारे तेरे मिलाप ऊपर
रक़ीब आपी से ज़हर खाने जो वस्ल का तू पयाम करता
वो सर्व-क़ामत जो मुस्कुरा कर चमन में जाता तो मुस्कुरा कर
तड़पती बुलबुल सिसकती क़ुमरी गुलों पे हँसना हराम करता
भला हुआ जो नक़ाब तू ने उठाया चेहरे से है परी-रू
वगर्ना सीने से दिल तड़प कर निगह में आ कर मक़ाम करता
जो ज़ुल्फ़ें मुखड़े पे खोल देता सनम हमारा तो फिर ये गर्दूं
न दिन दिखाता न शब बिताता न सुब्ह लाता न शाम करता
वो बज़्म अपनी थी मय-ख़ुरी की फ़रिश्ते हो जाते मस्त बे-ख़ुद
जो शैख़-जी वाँ से बच के आते तो फिर मैं उन को सलाम करता
'नज़ीर' तेरी इशारतों से ये बातें ग़ैरों की सुन रहा है
वगर्ना किस में थी ताब-ओ-ताक़त जो उस से आ कर कलाम करता
ग़ज़ल
बुतों की मज्लिस में शब को मह-रू जो और टुक भी क़याम करता
नज़ीर अकबराबादी