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बुतान-ए-ख़िश्त-ओ-संग से कलाम कर के आ गया | शाही शायरी
butan-e-KHisht-o-sang se kalam kar ke aa gaya

ग़ज़ल

बुतान-ए-ख़िश्त-ओ-संग से कलाम कर के आ गया

राहत सरहदी

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बुतान-ए-ख़िश्त-ओ-संग से कलाम कर के आ गया
कि मैं तुम्हारे शहर में भी शाम कर के आ गया

वहाँ किसी को याद भी नहीं था मेरा नाम तक
जहाँ मैं अपनी ज़िंदगी तमाम कर के आ गया

गली में खेलता हुआ मिला था अपना बचपना
जिसे मैं हसरतों भरा सलाम कर के आ गया

तुम्हारा नाम फिर कुरेद कर उदास पेड़ पर
ख़िज़ाँ में फ़स्ल-ए-गुल का एहतिमाम कर के आ गया

तकल्लुफ़ात में गुज़र गई हयात-ए-सरहदी
कि जैसे अजनबी के घर क़याम कर के आ गया