बुत-परस्ती ने किया आशिक़-ए-यज़्दाँ मुझ को
पर्दा-ए-कुफ़्र में हासिल हुआ ईमाँ मुझ को
अब दर-अंदाज़ी-ए-अग़्यार नहीं चल सकती
ख़ूब पहचानते हैं यार के दरबाँ मुझ को
ख़ाल-ए-रुख़ ख़िज़्र-ए-रह-ए-कुफ़्र न होता जो तिरा
दाम में ला ही चुके थे ये मुसलमाँ मुझ को
जिस में कुछ होती है उम्मीद-ए-विसाल-ए-मा'शूक़
इतनी खलती नहीं वो गर्दिश-ए-दौराँ मुझ को
ये न मा'लूम था इस रंग से आएगी बहार
तौबा-ए-मय ने किया सख़्त पशेमाँ मुझ को
इश्क़ ने मन्सब-ए-उ'श्शाक़ जो तक़्सीम किए
बाग़ बुलबुल को दिया कूचा-ए-जानाँ मुझ को
दिल-जला मैं हूँ वो आशिक़ कि शब-ए-हिज्र 'क़लक़'
शम्अ' भी रोने लगे देख के गिर्यां मुझ को
ग़ज़ल
बुत-परस्ती ने किया आशिक़-ए-यज़्दाँ मुझ को
अरशद अली ख़ान क़लक़