बुत-परस्ती ने किया आशिक़-ए-यज़्दाँ मुझ को
पर्दा-ए-कुफ्र में हासिल हुआ ईमाँ मुझ को
जब तलक ज़ुल्फ़-ए-रुख़-ए-यार का दीवाना रहा
पीर समझा किए हिंदू-ओ-मुसलमाँ मुझ को
चाहिए पैरहन-ए-दामन-ए-तेग़ ओ क़ातिल
तेरे ख़ंजर का है दरकार गरेबाँ मुझ को
अब दर-अंदाज़ी-ए-अग़्यार नहीं चल सकती
ख़ूब पहचानते हैं यार के दरबाँ मुझ को
शर्म-ए-ईज़ा से मिरे दिल को यक़ीं है ऐ मौत
मुँह न दिखलाएगी सुब्ह-ए-शब-ए-हिज्राँ मुझ को
ख़ाल-ए-रुख़ ख़िज़्र-ए-रह-ए-कुफ़्र न होता जो तिरा
दाम में ला ही चुके थे ये मुसलमाँ मुझ को
चश्म-ए-खूँ-ख़्वार का आग़ोश-ए-मिज़ा में है ये क़ौल
ज़ेब है कहिए अगर शेर-ए-नियस्ताँ मुझ को
जिस में कुछ होती है उम्मीद-ए-विसाल-ए-महबूब
इतनी खलती नहीं वो गर्दिश-ए-दौराँ मुझ को
ये न मा'लूम था इस रंग से आएगी बहार
तौबा-ए-मय ने किया सख़्त पशेमाँ मुझ को
इश्क़ ने मन्सब-ए-उ'श्शाक़ जो तक़्सीम किए
बाग़ बुलबुल को दिया कूचा-ए-जानाँ मुझ को
सोज़िश-ए-दिल से ये परवाने की सूरत तड़पा
देख कर रोने लगी शम-ए-शबिस्ताँ मुझ को
मुझ गिराँ-बार के महशर में तुलें जब आ'माल
न सुबुक कीजियो ऐ पल्ला-ए-मीज़ाँ मुझ को
कौन अंदेशा-ए-फ़र्दा का मलाल आज करे
मौसम-ए-गुल में नहीं फ़िक्र-ए-ज़मिस्ताँ मुझ को
तेरे होते हुए ऐ ग़ैरत-ए-ख़ुर्शीद न लूँ
खोटे दामों भी मिले गर मह-ए-कनआँ' मुझ को
सफ़-कशी अपनी दिखाता है मुझे क्या अशरार
याद है उस की सफ़-आराई-ए-मिज़्गाँ मुझ को
लब-ए-जाँ-बख़्श सनम का हूँ जो आशिक़ तो लोग
जानते हैं ख़िज़र-ए-चश्मा-ए-हैवाँ मुझ को
ना-तवाँ वो हूँ अजब क्या सिफ़त पा-ए-मलख़
मोर ले जाए अगर पेश-ए-सुलैमाँ मुझ को
मेरे ज़ुल्मत-कदे में लाएँ जो रौशन कर के
किर्म-ए-शब आए नज़र शम-ए-शबिस्ताँ मुझ को
सद्द-ए-बाब अब मिरा अग़्यार अबस करते हैं
निकहत गुल हूँ नहीं कुछ ग़म-ए-दरबाँ मुझ को
दिल-जला मैं हूँ वो आशिक़ कि शब-ए-हिज्र 'क़लक़'
शम्अ' भी रोने लगी देख गरेबाँ मुझ को
ग़ज़ल
बुत-परस्ती ने किया आशिक़-ए-यज़्दाँ मुझ को
अरशद अली ख़ान क़लक़