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बुत-गरी-ए-जमाल में गुज़रा | शाही शायरी
but-gari-e-jamal mein guzra

ग़ज़ल

बुत-गरी-ए-जमाल में गुज़रा

परवेज़ शाहिदी

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बुत-गरी-ए-जमाल में गुज़रा
अहद-ए-कुफ़्र एक हाल में गुज़रा

वक़्त गुज़रा जो बे-ख़याली में
वो तिरे ही ख़याल में गुज़रा

कुछ कटा वक़्त रंज-ए-दूरी में
कुछ ख़याल-ए-विसाल में गुज़रा

हाए वो ज़ख़्म जिन का मौसम-ए-गुल
दहशत-ए-इंदिमाल में गुज़रा

फिर धड़कने लगा है दिल अपना
क्या कहूँ क्या ख़याल में गुज़रा

निगह-ए-दोस्त का भी मौसम-ए-लुत्फ़
दिल ही की देख-भाल में गुज़रा

एक लम्हे में कितने साल कटे
एक लम्हा भी साल में गुज़रा