बुत-गरी-ए-जमाल में गुज़रा
अहद-ए-कुफ़्र एक हाल में गुज़रा
वक़्त गुज़रा जो बे-ख़याली में
वो तिरे ही ख़याल में गुज़रा
कुछ कटा वक़्त रंज-ए-दूरी में
कुछ ख़याल-ए-विसाल में गुज़रा
हाए वो ज़ख़्म जिन का मौसम-ए-गुल
दहशत-ए-इंदिमाल में गुज़रा
फिर धड़कने लगा है दिल अपना
क्या कहूँ क्या ख़याल में गुज़रा
निगह-ए-दोस्त का भी मौसम-ए-लुत्फ़
दिल ही की देख-भाल में गुज़रा
एक लम्हे में कितने साल कटे
एक लम्हा भी साल में गुज़रा
ग़ज़ल
बुत-गरी-ए-जमाल में गुज़रा
परवेज़ शाहिदी