बुनियाद-ए-जहाँ में कजी क्यूँ है
हर शय में किसी की कमी क्यूँ है
क्यूँ चेहरा-ए-ख़ार शगुफ़्ता है
और शाख़-ए-गुलाब झुकी क्यूँ है
वो वस्ल का दिन क्यूँ छोटा था
ये हिज्र की रात बड़ी क्यूँ है
जिस बात से दिल में हलचल है
वो बात लबों पे रुकी क्यूँ है
मत देख कि कौन है परवाना
ये सोच कि शम्अ जली क्यूँ है
न थे ख़्वाब तो आँसू ही होते
मिरा कासा-ए-चश्म तही क्यूँ है
ग़ज़ल
बुनियाद-ए-जहाँ में कजी क्यूँ है
शहरयार