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बुलबुल बजाए अपने तुझे हम-नवा से बहस | शाही शायरी
bulbul bajae apne tujhe ham-nawa se bahs

ग़ज़ल

बुलबुल बजाए अपने तुझे हम-नवा से बहस

वलीउल्लाह मुहिब

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बुलबुल बजाए अपने तुझे हम-नवा से बहस
वाशुद में गुल की महज़ ग़लत है सबा से बहस

आईने को न चाहिए आशिक़ के दिल के साथ
बर-अक्स अपनी शक्ल के रू-ए-सफ़ा से बहस

अब तो ग़ुरूर-ए-हुस्न है ऐसा बुताँ तुम्हें
मुतलक़ महल्ल-ए-ख़ौफ़ नहीं है ख़ुदा से बहस

मबहस से उस मक़ाम के ख़ारिज है दख़्ल-ए-ग़ैर
जब आश्ना को आन पड़े आश्ना से बहस

बुलबुल हज़ार नग़्मा-सरा होए बाग़ में
कब कर सके है नाला-ए-दिल की सदा से बहस

दाना न उस को समझिए जो ग़ैर ख़ामुशी
दिल ख़स्ता हो फ़लक के करे आसिया से बहस

कब शम्अ' तेरे हुस्न के शो'ले के रू-ब-रू
महफ़िल में कर सके कम-ओ-बेश-ए-ज़िया से बहस

तौसन ने तेरी नाज़ुकी गुलशन में ख़त्म की
आज आब-ओ-रंग-ए-गुल की हवस पर हवा से बहस

गुलशन में चाक पैरहन-ए-गुल किया 'मुहिब'
बुलबुल ने कर के उस बुत-ए-गुलगूँ-क़बा से बहस