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बुलंदियों से उतर कर कभी पुकार मुझे | शाही शायरी
bulandiyon se utar kar kabhi pukar mujhe

ग़ज़ल

बुलंदियों से उतर कर कभी पुकार मुझे

काविश बट

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बुलंदियों से उतर कर कभी पुकार मुझे
अज़ल से तेरे करम का है इंतिज़ार मुझे

तिरे जमाल-ए-शफ़क़-रंग का ज़ुहूर हूँ मैं
मिला है तेरी तमाज़त से ये वक़ार मुझे

तवील उम्र से फ़िक्र-ओ-नज़र की क़ैद में हूँ
निगाह-ए-वक़्त की सूली से अब उतार मुझे

तिरी वफ़ा का भरम मेरी ज़ात से मंसूब
मुख़ालिफ़ों की सफ़ों में न कर शुमार मुझे

हक़ीक़तों को समझ मस्लहत-शनास न बन
फ़सील-ए-जब्र से ख़ुद भी निकल उभार मुझे

तिरी तलब की कड़ी धूप में भी हूँ लेकिन
अता हो अब्र-ए-करम पेड़ साया-दार मुझे

मैं तीरगी को अमानत तिरी समझता हूँ
तू रौशनी है तो कोई किरन उतार मुझे