बुलंदियों से उतर कर कभी पुकार मुझे
अज़ल से तेरे करम का है इंतिज़ार मुझे
तिरे जमाल-ए-शफ़क़-रंग का ज़ुहूर हूँ मैं
मिला है तेरी तमाज़त से ये वक़ार मुझे
तवील उम्र से फ़िक्र-ओ-नज़र की क़ैद में हूँ
निगाह-ए-वक़्त की सूली से अब उतार मुझे
तिरी वफ़ा का भरम मेरी ज़ात से मंसूब
मुख़ालिफ़ों की सफ़ों में न कर शुमार मुझे
हक़ीक़तों को समझ मस्लहत-शनास न बन
फ़सील-ए-जब्र से ख़ुद भी निकल उभार मुझे
तिरी तलब की कड़ी धूप में भी हूँ लेकिन
अता हो अब्र-ए-करम पेड़ साया-दार मुझे
मैं तीरगी को अमानत तिरी समझता हूँ
तू रौशनी है तो कोई किरन उतार मुझे
ग़ज़ल
बुलंदियों से उतर कर कभी पुकार मुझे
काविश बट