बुलंद फ़िक्र की हर शे'र से अयाँ हो रमक़
मिरे क़लम से अदा हो कभी ग़ज़ल का हक़
उदास उदास हैं इंसाँ हर एक चेहरा फ़क़
ये शहर शहर है या दश्त है ये लक़-ओ-दक़
मैं दिल की बात कहूँ यूँ कि दिल तलक पहुँचे
न हों किनाए ही मुबहम न इस्तिआ'रे अदक़
चलो समेट के ऑफ़िस को अपने घर की तरफ़
उफ़ुक़ के पार वो देखो उतर रही है शफ़क़
ज़रा सा इल्म-ओ-हुनर पा गए तो कुछ कम-ज़र्फ़
समझ रहे हैं सभी को ही अहक़र-ओ-अहमक़
फिर एहतिजाज के रस्ते पे क्यूँ चलेंगे हम
हमें जो मिलता रहे आप से हमारा हक़
तअ'ल्लुक़ात में क़ाएम रखें भरोसे को
कि शक हमेशा ही करता रहा है रिश्ते शक़
किसी किताब में मिलता नहीं है ज़िक्र 'आज़म'
हमें सिखाए हैं इस ज़िंदगी ने ऐसे सबक़

ग़ज़ल
बुलंद फ़िक्र की हर शे'र से अयाँ हो रमक़
डॉक्टर आज़म