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बुलंद बर्क़ के आगे भी हौसला रखना | शाही शायरी
buland barq ke aage bhi hausla rakhna

ग़ज़ल

बुलंद बर्क़ के आगे भी हौसला रखना

मुख़्तार अहमद कौसर

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बुलंद बर्क़ के आगे भी हौसला रखना
जले जो एक नशेमन तो दूसरा रखना

जो आज़माना हो मुझ को तो फिर मिरे आगे
ख़ुम-ओ-सुराही नहीं सारा मय-कदा रखना

वो सच की खोज में किस किस का देखता चेहरा
जो ख़ुद ही भूल गया साथ आइना रखना

कहीं उगा हो वो गुलशन हो या कि सहरा हो
हमेशा फूल की ख़ुश्बू से वास्ता रखना

दिलों के बीच में दीवार तानने वालो
खुली हवा में निकलने का रास्ता रखना

वो अजनबी कि शनासा हो ये ख़याल रहे
मिलो जो उस से तो थोड़ा सा फ़ासला रखना

सऊबतों से जो दिल टूटने लगे 'कौसर'
नज़र के सामने तस्वीर-ए-कर्बला रखना