बुलाओ उस को ज़बाँ-दाँ जो 'मज़हरी' का हो
मगर है शर्त कि इक्कीसवीं सदी का हो
यक़ीं वही है जो आग़ोश-ए-तीरगी में मिले
सवाद-ए-वहम में हम-साया रौशनी का हो
बुतों को तोड़ के ऐसा ख़ुदा बनाना क्या
बुतों की तरह जो हम-शक्ल आदमी का हो
मिरा ग़ुरूर न क्यूँ हो सुरूर से ख़ाली
जब उस के भेस में इक चोर कम-तरी का हो
बहुत बजा है ये मज़हब की मौत पर मातम
मगर कोई तो अज़ा-दार शायरी का हो
है वक़्त वो कि मुसल्लम हो आज़री उस की
सनम-कदों में सनम ज़ेहन 'मज़हरी' का हो
ग़ज़ल
बुलाओ उस को ज़बाँ-दाँ जो 'मज़हरी' का हो
जमील मज़हरी