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बुझती रगों में नूर बिखरता हुआ सा मैं | शाही शायरी
bujhti ragon mein nur bikharta hua sa main

ग़ज़ल

बुझती रगों में नूर बिखरता हुआ सा मैं

कबीर अजमल

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बुझती रगों में नूर बिखरता हुआ सा मैं
तूफ़ान-ए-नंग-ए-मौज गुज़रता हुआ सा मैं

हर शब उजालती हुई भीगी रुतों के ख़्वाब
और मिस्ल-ए-अक्स-ए-ख़्वाब बिखरता हुआ सा मैं

मौज-ए-तलब में तैर गया था बस एक नाम
फिर यूँ हुआ कि जी उठा मरता हुआ सा मैं

इक धुँद सी फ़लक से उतरती दिखाई दे
फिर उस में अक्स अक्स सँवरता हुआ सा मैं

दस्त-ए-दुआ उठा तो उठा उस के ही हुज़ूर
लेकिन ये क्या उसी से मुकरता हुआ सा मैं

अब के हवा चले तो बिखर जाऊँ दूर तक
लेकिन तिरी गली में ठहरता हुआ सा मैं

मैं बुझ गया तो कौन उजालेगा तेरा रूप
ज़िंदा हूँ इस ख़याल में मरता हुआ सा मैं

'अजमल' वो नीम-शब की दुआएँ कहाँ गईं
इक शोर-ए-आगही है बिखरता हुआ सा मैं